क्यों कोई अंजाना अपना सा लगने लगता है
दो दिन की मुलाकात में ही
मानो जैसे सदियों की मुलाकात हो ,
मंजिल का पता नहीं होता है कभी कभी
फिर भी उस डगमग कठिन राह पे
क्यों चलने को मन करता है ॥
दिल और दिमाग में उलझन होती है
दिल कहता है क़ि आगे बढ़ो ,
वहीँ दिमाग कहता है क़ि यह राह मेरी नहीं
फिर दिल और दिमाग में बहस होती है ....
कभी दिल जीत के खुश हो लेता है
कभी दिमाग खुश हो के मदमस्त होता है ॥
इन दोनों के बीच मैं कहाँ होता हूँ
समझ नहीं पाता हूँ
पर चलता ही जाता हूँ
कभी दिमाग की मान लेता हूँ
तो कभी दिल की ,
कभी द्रढ निश्चय लेता हूँ क़ि
अब बस दिल की नहीं सुनूंगा
उसे हावी नहीं होने दूंगा अपने ऊपर
कितने ही लक्ष्य हैं अभी उन्हें पूरा भी तो करना है
दिल कहता है क़ि गलत ही क्या है ?
दिमाग कहता है क़ि पथ से विचलित होता हूँ ,
दिल कहता है पथ से जो विचलित करे दिल नहीं है वो
ध्यान से सुनो दिल की
कहीं न कहीं दिमाग में भी वही है ...
जो दिल में है ।
फिर आज
कोशिश की दिल और दिमाग को
एक करने की ,
देखा दोनों एक ही भाषा बोलते हैं ,
एक ही पथ पर मंजिल है दोनों की
प्यार और शांति ही चाहते हैं दोनों
मैं मुस्कुराया अपने दिलोदिमाग पे
देखा दोनों एक ही राह चले जा रहे हैं ।
Monday, December 21, 2009
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kuch zyada hi practical he
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