Sunday, November 21, 2010




इन अंधेरों में
एक तो किरण उजाले की हो ...
देख रहा हूँ चहूँ ओर
ना ही राह दिखे ना मंजिल कोई .

इस निराशा के घनघोर बदली में
एक तो किरण आशा की हो
अंधकार घना ही होता जा रहा है ,
पथिक हारता ही जा रहा है ...

कोई तो आये ,
कोई तो राह दिखाए ..
घने अंधकार को चीरती एक किरण
आशा से भरी एक किरण ...

पर जब नियति ही यही है ,
चलना मुझे अकेले है ...
गिरना है,संभलना है
उठ कर फिर से चलना है ..

सपने अनंत राहों में ,
अंधेरों में उजालों के
राह तकें मेरी मंजिलें
फिर क्यों राह देखूं किसी की ,
चलूँ खुद ही ,
उठूँ आज फिर ,
तोडूं चक्रव्यूह अर्जुन बन ,
बनूँ विजयी अनंत काल तक...

2 comments:

  1. फिर क्यों राह देखूं किसी की ,
    चलूँ खुद ही ,
    उठूँ आज फिर ,
    तोडूं चक्रव्यूह अर्जुन बन ,
    बनूँ विजयी अनंत काल तक...
    Wah!Ye hui na baat!!

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  2. really heart touching lines....applause for you from heart..:)

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