Thursday, April 15, 2010

मन

विचारों की उधेड़बुन में
कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है मन ,
हम सोचते रहते हैं
क़ि हम कहाँ हैं ...
हम यहाँ हैं , हम वहां हैं
हम कहाँ कहाँ हैं ?

कभी उन्मुक्त पंछी जैसा
आसमान में उड़ता लगता है ,
कभी मदमस्त हाथी जैसा
जंगल में घूमता है ।

तो कभी भंवरे जैसा बन
फूलों पर मंडराता है ,
कभी प्रकृति जैसा पावन ,निश्छल बन
मदहोश कर देता है ये मन ।

कभी चाहूं मन की मानूं
कभी चाहूं मन मेरी माने
हमारे इस अंतर्द्वंद्व में
कभी हठी मन हारे
तो कभी मैं...

मन
चंचल ,पावन ,निश्छल,हठी
हर एक इंसां को
अद्वितीय निराला बनाता
ये मन ।

2 comments:

  1. sahi aur sach likha. sab k man ki dasha ka haal likh diya aapne. aur haa.n aapke lekhan me kafi nikhaar hai. badhayi.

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  2. तो कभी भंवरे जैसा बन
    फूलों पर मंडराता है ,
    कभी प्रकृति जैसा पावन ,निश्छल बन
    मदहोश कर देता है ये मन ।
    Bahut sundar aur nishchhal!

    ReplyDelete

 
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