Tuesday, November 3, 2009

चाँद और पूर्णिमा

रात को सोने लगा तो देखा
कि कोई खिड़की से झाँक रहा है ,
कमरे में दूधिया रोशनी भी फैली है ..
देखा तो चाँद बाहर मुस्कुरा रहा था ,

पूरा गोल चाँद ,
बिलकुल वैसा जैसा कि
सर्कल बनाते थे बचपन में
इतना सुन्दर किसने बनाया इसे ...

मेरे अन्दर का बचपन जागा
चंदा मामा ....
कितने सुहाने दिन थे ,
आज चाँद को देखकर वही याद आया ...
और मुस्कुरा दिया ,

जल्दी ही बडा भी हो गया मैं
लगा कि
जीवन भी पूर्णिमा और अमावस
की तरह बदलता रहता है ,

अमावस की रात जैसे
दुःख,विरह के पलों के बाद
पूर्णिमा की चांदनी रात
भी आनी ही होती है ...

पर हम चाँद और पूर्णिमा
के अलावा ही कहीं मग्न हैं,
जीवन की भाग दौड़ में ,
सुबह शाम में ...

अच्छा हो कि
कुछ लक्ष्य हो आँखों में
कुछ सपने हों आँखों में ...
और फिर उन्हें हासिल करें

फिर वो दिन जब सपने पूरे हों
वो दिन ही चाँद और पूर्णिमा
बन जाएगा...
महसूस करके देखिये जरा ....
जीवन सफलता से महकने लगेगा ...

1 comment:

  1. निर्मल मन से ही अच्छी कविताएँ जन्म लेती हैं
    यूँ ही लिखते रहें..... अच्छा लिख रहे हैं।

    ReplyDelete

 
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